उत्तराखंड में शिक्षा के अधिकार अधिनियम बना मज़ाक! गरीब बच्चों के सपनों को रौंद रहा सिस्टम 

देहरादून। उत्तराखंड में शिक्षा के अधिकार अधिनियम (RTE) के तहत गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का सपना अब केवल कागज़ों तक ही सीमित रह गया है। सरकारी लापरवाही, फर्जीवाड़ा और भ्रष्टाचार के चलते मासूमों का भविष्य अंधेरे में डूबता जा रहा है। सबसे बड़ा सवाल यह है — क्या इस अधिनियम का उद्देश्य पूरा हो रहा है, या फिर यह सिर्फ धन्ना सेठों के बच्चों का “एडमिशन पास” बनकर रह गया है?

आयु सीमा बनी अभिशाप, 2 दिन की देरी से साल बर्बाद!

  • शिक्षा विभाग के मुताबिक कक्षा 1 में एडमिशन के लिए बच्चे की उम्र 6 वर्ष होनी चाहिए।
  • अगर बच्चे का जन्म 31 मार्च के बाद हुआ — चाहे 1 या 2 अप्रैल को ही क्यों न हो — तो उसे एडमिशन नहीं मिलेगा।
  • परिणाम? हज़ारों बच्चे हर साल सिर्फ दो दिन की देरी के कारण स्कूल से बाहर रह जाते हैं।

जन्म प्रमाण पत्र बना ‘एडमिशन पास’ – लेकिन अमीरों के लिए!

  • अमीर परिवारों ने अपने बच्चों के जन्म प्रमाण पत्रों में हेराफेरी करवाई — नए सिरे से बनवा लिए कागज़ात।
  • गरीब परिवारों के पास न तो जानकारी है, न पैसे, न पहुंच। वे इसी नियम की मार झेल रहे हैं।

शिक्षा विभाग बना ‘फ़ाइलों का बंदीगृह’

  • अधिकारी कहते हैं फाइल शासन में है, लेकिन कब तक? जवाब किसी के पास नहीं।
  • शिक्षा अधिकारी फोन तक उठाना गंवारा नहीं समझते।
  • कई पीड़ित अभिभावकों ने बताया कि उन्होंने हफ्तों चक्कर लगाए, लेकिन सुनवाई नहीं हुई।

गरीबों की बेबसी – धन्ना सेठों का बोलबाला

  • तहसील में आय प्रमाण पत्र बनवाने के लिए मांगे जा रहे हैं ₹500!
  • जो गरीब खुद ₹100 नहीं जुटा सकता, वो कैसे बनाएगा प्रमाण पत्र?
  • वहीं अमीर लोग आसानी से ₹200-₹500 देकर सीएससी सेंटर से आय प्रमाण पत्र बनवा रहे हैं — झूठे और मनगढ़ंत आँकड़ों के साथ।
  • इन प्रमाण पत्रों के आधार पर हो रहे एडमिशन – और गरीब बच्चा रह जाता है वंचित।

सरकारी स्कूलों की दुर्दशा – RTE बना विनाश का कारण?

  • RTE की वजह से सरकारी स्कूलों से हो रहा है बच्चों का पलायन।
  • पढ़ाई का स्तर गिरा, संसाधन सीमित और अब छात्रों की संख्या भी घट रही है।
  • जबकि RTE के तहत मिलने वाली सीटों पर अब तथाकथित “गरीब” – असल में अमीर – बच्चों का कब्ज़ा है।
  • सरकार से सवाल – कब तक चलेगा यह अन्याय?

RTE अधिनियम के तहत लाभ पाने के असली हकदार कौन हैं?

  • आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के बच्चे
  • अनुसूचित जाति और जनजाति से जुड़े बच्चे
  • विकलांग बच्चे और विशेष ज़रूरतों वाले छात्र

लेकिन वास्तविकता यह है कि ये बच्चे सबसे ज़्यादा इस प्रणाली से बाहर हो गए हैं।

आखिर दोषी कौन?

  • नीतियाँ?
  • लापरवाह अधिकारी?
  • भ्रष्टाचार में लिप्त सिस्टम?
  • या फिर हम सब, जो यह अन्याय देखकर भी चुप हैं?
  • समय है जागने का!

अगर अभी आवाज़ नहीं उठाई गई, तो शिक्षा का यह अधिकार केवल कागज़ों में सिमट कर रह जाएगा। बच्चों के भविष्य से बड़ा कोई मुद्दा नहीं — और जब भविष्य ही बर्बाद हो रहा हो, तो चुप्पी सबसे बड़ा अपराध बन जाती है।


 


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गिरीश भट्ट

मुख्य संवाददाता - मानस दर्पण